तो चलिए पहले आप यही तय कर लीजिए कि आप ये एंट्रेंस एग्जाम क्यों दे रहे हैं। पत्रकार बनना है, क्यों, क्योंकि ग्रेजुएशन के बाद कुछ करना है, क्योंकि टीवी पर जब सूटबूट में बाबू जी किसी लड़के को देखते हैं, तो मुझे लगता है कि उन्हें मुझे देखना चाहिए। कि जब टीवी पर लहराते दुपट्टे के आगे कोई मुस्कराता चेहरा पूरे यकीन के साथ दिल्ली के गलियारों से, मुंबई की सड़कों से रिपोर्टिंग कर रहा होता है, तो मुझे लगता है कि ये लड़की मैं हूं। क्योंकि मीडिया में वो सब कुछ है जो हिंदुस्तान और खासतौर पर हिंदी पट्टी में किसी को चाहिए होता है – पावर, ग्लैमर और अगर ढंग से जम गए तो मनी भी।
आखिर ये कैसा आईआईएमसी पासआउट है, जो एंट्रेंस के बारीक पेच बताने के बजाय फालतू लंतरानी हांके जा रहा है। दरअसल मेरे पास बताने को और कुछ है भी नहीं। जो है वो कुछ इसी तरह की बेतरतीबी से सामने आएगा।
पहला और सबसे जरूरी सवाल
इस धंधे में क्यों आ रहे हो
ये सवाल वैसे तो इंटरव्यू में पूछा जाता है, मगर आपके जेहन में पहले से ही क्लीयर होना चाहिए। हो सकता है कि कोर्स पूरा करने के बाद तुम्हें फौरन प्लेसमेंट न मिले। हो सकता है कि तुम्हें लगे कि क्लासरूम में जो अच्छी बातें बताई जा रही हैं वो इंडस्ट्री में काम नहीं आ रहीं। हो सकता है कि कभी तुम्हें लगे कि मेरे बगल में बैड़ा कलीग, या मेरा बॉस मुझसे कम जानता है, मगर फिर भी मुझे उसके निर्देश तले काम करना होगा। हो सकता है कि जिस तरीके से दसेक साल पहले तक सिर्फ नेताओं को गालियां पड़ती थीं, उसी तरफ से तुम्हें भी उस कॉमन नाउन मीडिया का हिस्सा होने के कारण कुल्ला भरकर गालियां पड़ें।
तो फिर क्यों, आखिर क्या है। पइसा बोल नहीं सकते, क्योंकि ये सब जानते हैं कि हिंदी मीडिया में पइसा ठीक ठाक तो है, मगर इफरात में नहीं।
देशसेवा के लिए आ रहे हो, ये सोचते भी हो, तो भी मत बोलना, क्योंकि एग्जाम और इंटरव्यू में मजाक अच्छे नहीं माने जाते। पता नहीं सामने वाले का सेंस ऑफ ह्यूमर तुम्हारे मार्क्स पर हथौड़ा न मार दे।
तो फिर क्या जवाब दिया जाए। अगर यही सवाल मुझसे पूछा जाए तो, मैं इस धंधे में इसलिए आया क्योंकि यहां मजा आता है। हर दिन नया दिन, नई खबर, सब कुछ रफ्तार, एकुरेसी और क्रिएटिविटी की मांग करता, यहां डेली ट्वेंटी-टवेंटी की तरह कुछ दर्शनीय शॉट मारने हैं, यहां डेली रनरेट बेहतर करना है, यहां डेली क्लास डिवेलप करनी है।
पत्रकारिता सिर्फ नौ से पांच की नौकरी नहीं। तुम सड़क पर चल रहे हो, खाना खा रहे हो, मां को टीवी देखते देख रहे हो, सब्जी वाले को समझा रहे हो, या फिर कुछ नहीं तो सिर्फ बच्चे को टब से पानी गिराते देख रहे हो, तो तुम पत्रकार होने के नाते कुछ ऑब्जर्व कर रहे हो। तुम पूरे के पूरे ऐसे बन जाते हो, जैसे कभी तुम एक आदमी नहीं सिर्फ एक बड़ा सा कान हो, जो दुनिया की बारीक से बारीक आवाज को इतने शोर के बीच साफ सुन लेना चाहता है, तुम कभी सिर्फ नाक बन जाते हो, ताकि इतने धूल के बीच तुम सीधी सच्ची ऑक्सीजन खींच सको। तुम सिर्फ एक बड़ी बहुत बड़ी आंख बनना चाहते हो, जिससे कुछ भी कितनी भी बारीक सिम्तों में लिपटा हुआ सच छिपा न रह जाए।
हम इस धंधे में आना चाहते हैं क्योंकि जब बड़ी खबर आती है, तो एड्रेनिल रश तेज हो जाता है, क्योंकि जब पेज की डिजाइन का काम आता है, तो हमारा पिकासो किलकारियां मारने लगता है। हम इस धंधे में आना चाहते हैं क्योंकि हम चाहते हैं कि ये देश अपने दिन की शुरुआत हमारे लिखे-संवारे हुए कंटेंट से करे। हम इस देश की नाक, आंख, कान बनना चाहते हैं।
ऑलराइट तो इस लंबे स्पीचनुमा मोनोलॉग के बाद वक्त है कुछ जरूरी सलाहों का, नहीं ऊपर वाली भी सब जरूरी हैं, मगर कुछ तथ्यात्मक ज्ञान का
पाइंट्स में लिखता हूं ताकि रट्टा मारने में आसानी रहे।
- पत्रकार को सेक्स से लेकर सेटेलाइट तक हर चीज की बेसिक समझ होनी चाहिए।
- एग्जाम देना रॉकेट साइंस नहीं है। कॉपी मिलते ही एक सरकारी एलियन में तब्दील मत हो जाना। ये नहीं कि पेन पकड़ते ही जिस भाषा में बात करते हो, जिन जुमलों को इस्तेमाल करते हो उन्हें भूलकर, अखबारी या प्रतियोगिता दर्पण स्टाइल की इबारत लिखना शुरू कर दो। भाषा वैसी ही होनी चाहिए जैसी डेली बोलते हो, फ्लो हो, कृत्रिमता नहीं।
- ढाई घंटे का पेपर है, छोटे-छोटे सवाल शर्तिया फायदा देते हैं, इसलिए उन्हें पहले निपटा लो।
- क्योंकि बडे सवाल में बहुत अच्छा लिखोगे तो 15 में 12 मिल जाएंगे, एवरेज लिखोगे तो 8 मिल जाएंगे, मगर 5-5 नंबर के तीन सवाल भी गए, तो 15 नंबरों की भ्रूण हत्या हो जाएगी।
- जवाब में तथ्य सही लिखो और हां जवाब लिखने के दौरान अपने आसपास के सहज सरज उदाहरण लिखो, इससे एग्जाम्नर को भी समझ आता है कि कॉपी लिखने वाली फूल देवी, या भोले भंडारी नहीं हैं। मसलन, अगर सांप्रदायिकता पर लिख रहे हो, तो अपने शहर के बजरिया इलाके की छवि पर लिख सकते हो, माई नेम इज खान के शाहरुख के किसी डायलॉग के बारे में लिख सकते हो, या फिर क्रिकेट मैच के बाद के किसी स्टेटमेंट के बारे में भी। किस्सा कोताह ये कि जब सवाल देखो, तो उनके जवाब किताबी निबंधों में नहीं अपने आसपास खोजो। अपनी जिंदगी से जवाब उठाओगे, तो रट्टा मारने की जरूरत नहीं पड़ेगी, भाषा कम नहीं पड़ेगी।
- बाकी बातें अगली किस्त में, मगर वो तभी, जब आपको ये काम का लगे, वर्ना क्यों समय खराब करना, आपका और अपना भी।
- ऑल द बेस्ट, वो रोडीज वाले कहते हैं न. वेलकम इन हेल.
सौरभ द्विवेदी