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Friday, April 25, 2008

हिंदी पत्रकारिता विभाग के लिए तैयारियाँ...

साथियों,
पेशेवर पत्रकारिता की दुनिया में क़दम रखने की आपकी इच्छा सफल हो. निश्चित ही इसका सबसे बेहतर रास्ता भारतीय जन संचार संस्थान यानी आईआईएमसी से होकर गुजरता है, ऐसा मेरा मानना है.

इसमें दाखिला पाना मुश्किल नहीं है लेकिन आसान भी नहीं. सीटें कम और निश्चित हैं. होड़ ज़्यादा है. पिछले कुछ वर्षों में इच्छुक अभ्यर्थियों की संख्या बढ़ी है. बाहर से चकाचौंध भरी दिखने वाली इस दुनिया में घुसने की कोशिश कम से कम निकट भविष्य में और तेज़ होगी.

लेकिन घबराने की कोई ज़रूरत नहीं. असल द्वंद्व तो हज़ार में लगभग सौ के बीच ही होता है. उन्हीं सौ में लगभग आधे लोग प्रवेश पा जाते हैं. कारण, सिर्फ़ फ़ॉर्म भरने वालों की कमी नहीं है. इसलिए ज़्यादा परेशान न होते हुए अपनी क्षमताओं पर भरोसा सबसे बड़ी चीज है.

अब किस वर्ग के सवालों को किस तरह से लें. ये अहम है. इसे तय न समझें कि पिछले दो वर्षों का पैटर्न इस बार भी कायम रहेगा. परिवर्तन लाज़मी है.

सबसे पहले बात कर लें विश्लेषणात्मक सवालों के बारे में. कभी भी प्रश्न को सरल या कठिन समझने की कोशिश न करें. दोनों नुकसान पहुँचा सकते हैं. कुछ सवाल या यूँ कहें कि हो सकता है सभी सवाल ऐसे हों जिसे सारे परीक्षार्थी लिख सकते हैं. तब ज़वाब ज़्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाता है.

मिसाल के तौर पर अगर पूछा जाए डब्ल्यूटीओ की दोहा दौर की बातचीत में भारत का क्या रुख़ है? निश्चित तौर पर सिर्फ़ फ़ॉर्म भरने वाले सारे लोग इसका ज़वाब देंगे. जैसे भारत के लिए ठीक नहीं है, यहाँ के किसानों-उत्पादकों को नुकसान होगा, घरेलू धंधे चौपट हो जाएंगे, आदि-आदि.

लेकिन यहीं आपको कुछ अलग दिखने की ज़रूरत है. हवाला दीजिए जेनेवा में हुई बातचीत का. वार्ता पूरी करने की समयसीमा और शुल्क ढ़ाँचे, ग़ैर कृषि उत्पादों की भारत में पहुँच आसान बनाने की विकसित देशों की रणनीति, कमलनाथ के कड़े लेकिन सुलझे हुए तर्क.

राजनीति से संबंधित सवालों में जब किसी भी पार्टी का ज़िक्र हो तो ज़वाब देते समय कौन आपकी उत्तर पुस्तिका पर निगाह डालेगा और उसकी क्या विचारधारा है, इतनी तह तक ना सोचें. लेकिन संतुलन ज़रूरी है. बुरा ना मानें, इसके लिए आपको अपना पूर्वाग्रह भी ताक पर रखना होगा. उदारवाद, भूमंडलीकरण, पूँजीवाद, बाज़ारवाद जैसे 'वादों' में उलझ कर न रह जाएँ. कम से कम परीक्षा भवन में व्यावहारिक ज़वाब दें.

और हाँ, जब भी किसी पक्ष में लिखने की उत्कट उत्कंठा हो तो बज़ाए हिचके ज़ोरदार तर्कों के साथ उसका बचाव करें.

नितांत निजी अनुभव से कह रहा हूँ, विश्लेषणात्मक सवालों के ज़वाब अगर आप इस तरह देते हैं तो फ़ायदा मिल सकता है.

इसके अलावा जो सवाल पूछे जाते हैं वो सामान्य ज्ञान से जुड़े होते हैं. इसलिए चार महीने पहले तक की राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों से रू-ब-रू रहें. एक ख़ास सवाल लगभग हर साल मीडिया से संबंधित होता है.

हो सकता है मैच कराना हो पत्रकार और संबंधित मीडिया समूह के बीच या एक ओर देश का नाम हो, दूसरी ओर कुछ चैनलों के. इसके लिए एक दिन मेहनत करें. प्रमुख मीडिया संस्थानों, उनके मालिकाना हक़, उनके मुख्य पत्रकारों के नाम पता कर लें. बात बन सकती है.

जब संक्षिप्त टिप्पणी करनी हो तो आपका निशाना अचूक होना चाहिए. भटकाव न हो. अगर ये पूछा जाए सलमान रश्दी चर्चा में क्यों हैं- तो ज़वाब ये न दें कि सेटनिक द वर्सेस के लेखक हैं और इसलिए चर्चा में है, बल्कि ऐसे लिखें सेटनिक द वर्सेस में इस्लाम पर टिप्पणी के लिए सुर्ख़ियों में आए सलमान रश्दी आजकल स्वर्ण पदक विजेता एथलीट मॉडल (नाम मुझे भी याद नहीं आ रहा) के साथ रोमांस के लिए चर्चा में हैं.

 

सहयोगः आलोक कुमार

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