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Wednesday, April 30, 2008

महत्वाकांक्षाएं परिश्रम मांगती हैं...

दो श्रेणी के छात्र पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थानों में आते हैं. पहली श्रेणी में वे लोग हैं, जिनकी पढ़ने-लिखने में स्वाभाविक रूप से दिलचस्पी होती है. इस दिलचस्पी का मुख्य पैमाना यही है कि रोज सुबह उन्हें अख़बार की ज़रूरत पड़ती है. वे अखबारों पर नजर डालते हैं और अपनी दिलचस्पी के विषयों से संबंधित लेख और संपादकीय भी पढ़ते हैं.

 

इस तरह की पढ़ाई के बाद सामयिक और समकालीन विषयों के बारे में उनकी रुचि बढ़ती चली जाती है और जहां कहीं इससे संबंधित सामग्री उन्हें मिलती है, वे स्वतः ही उसे पढ़ने में जुट जाते हैं. इस श्रेणी के उम्मीदवारों के पास पत्रकारिता संस्थान में प्रवेश पाने का आधार पहले से ही तैयार होता है. पत्रकारिता संस्थान में नौ-दस महीने के प्रशिक्षण के दौरान उनकी इस क्षमता को पत्रकारीय कौशल में तब्दील किया जाता है और स्वाभाविक रूप से यही उन्हें समाचार जगत में प्रवेश दिलाता है.

 

ऐसे उम्मीदवारों को प्रवेश के लिए थोड़ा अधिक सघन प्रयास करना होता है. इसके लिए पहला कदम तो यही है कि वे परीक्षा से करीब छह महीने पहले किसी भी बड़ी घटना के बारे में तीन अखबारों में तीन रिपोर्ट पढ़ें और इनके अंतर और समानता का विश्लेषण करें. आम तौर पर इस तरह की बड़ी घटनाओं पर हर समाचार पत्र अगले दिन संपादकीय प्रकाशित करता है. तीन समाचार पत्रों के एक ही विषय पर तीन संपादकीयों को पढ़ने से इस विषय पर समझदारी और ज्ञान बढ़ता है और पता चलता है कि इस विषय को कितने परिपेक्ष्य से देखा जा रहा है.

 

किसी न किसी विषय पर हर समाचार पत्र में सप्ताह भर लेख भी प्रकाशित होते रहते हैं और इस तरह के कम से कम तीन लेख तो पढ़ने ही चाहिए. इतना सब करने के बाद यह कह सकते हैं कि किसी विषय पर वे पर्याप्त रूप से जानकारी रखते हैं और उस विषय के बारे में उनके पास ज्ञान और समझदारी भी है.

 

इतना सब करने के बाद उनमें से किसी विषय पर किसी भी तरह का प्रश्न आए, वे इसका उत्तर देने में सक्षम होंगे (इसका मतलब यह भी नहीं है कि "तीन" तक ही सीमित रहा जाए बल्कि जितना अधिक अध्ययन हो सके, उतना ही अच्छा है.)

 

प्रवेश परीक्षा में दो तरह की जानकारी और ज्ञान का मूल्यांकन किया जाता है. एक जानकारी की श्रेणी वह है जिसे रातों-रात विकसित नहीं किया जा सकता. यह एक लंबी प्रक्रिया के माध्यम से ही हासिल की जा सकती है  और शायद इस प्रक्रिया की शुरुआत तब से ही हो जाती है, जब हम बस्ता उठाकर स्कूल जाते हैं.

 

"तीन" का फार्मूला समसामयिक विषयों की समझ बढ़ाने में उम्मीदवारों के लिए मददगार होता है.
 
इस तरह हम कह सकते हैं कि एक तो हमारे पास जानकारी और ज्ञान का वो आधार होता है जिसे हम एक लंबी प्रक्रिया के तहत हासिल करते हैं और जो हमें उन तमाम बौद्धिक कौशल से लैस करता है, जिससे हम विश्लेषण की क्षमता विकसित करते हैं. दूसरे स्तर पर हम समसामयिक विषयों के बारे में "तीन" के फार्मूले से जानकारी हासिल करते हैं और अपनी विश्लेषण क्षमता का इस्तेमाल कर लगातार अपने आपको अपडेट करते रहते हैं. जानकारी और ज्ञान का आधार भी एक गतिशील प्रक्रिया है, जिसका लगातार विकास और विस्तार होता है और फिर हम लगातार नई-नई मंजिलों को हासिल करते चले जाते हैं.

 

अब बात आती है दूसरी श्रेणी के उम्मीदवारों की जिनकी समसामयिक विषयों में उस तरह से स्वाभाविक रूझान नहीं होती जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है. इस तरह के उम्मीदवार अपने ढंग से सक्षम होते हैं और मुमकिन है कि उन्होंने अनेक दूसरे क्षेत्रों में भी कैरियर बनाने के प्रयास किए हों और अब भी कर रहे हों. इस श्रेणी के उम्मीदवारों को पहली श्रेणी के उम्मीदवारों से समसामयिक विषयों के बारे में जानकारी हासिल करने और इनके बारे में एक समझ और विश्लेषात्मक क्षमता विकसित करने के लिए थोड़ा अलग और अधिक प्रयास करने होंगे. (ऐसा भी नहीं है कि इस श्रेणी के उम्मीदवार अच्छे पत्रकार नहीं बन सकते लेकिन यह बड़ा अंतर है. समाचार उद्योग में लगातार बदल रही परिस्थितियों में यह अंतर पटता भी नजर आता है और कभी-कभी लगता है कि यह प्रासंगिक भी नहीं रह गया है. इसलिए यह नहीं कहा जा रहा है कि दूसरी श्रेणी के उम्मीदवार कोई स्वाभाविक रूप से कमजोर होते हैं बल्कि कुछ क्षेत्रों में वे अधिक मजबूत भी हो सकते हैं.)

 

इस श्रेणी के उम्मीदवारों को भी ऊपर लिखे गए "तीन" के फार्मूले पर ही चलना होगा लेकिन अंतर सिर्फ इतना है कि पहली श्रेणी के उम्मीदवार "तीन" को अगर सरसरी निगाह से भी पढ़ें तो शायद काम चल जाए. जबकि दूसरी श्रेणी के उम्मीदवारों को "तीन" के फार्मूले को लेकर संभवतः सघन अध्ययन की जरूरत पड़े.

 

पत्रकारिता संस्थानों में हर उम्मीदवार से अपेक्षा की जाती है कि उसकी भाषा अच्छी हो. भाषा के माध्यम से वह अपने आपको अभिव्यक्त कर सके. समसामयिक विषयों के बारे में जानकारी रखता हो और उनके विश्लेषण की उसमें क्षमता हो. इसके अलावा अगर उम्मीदवार रचनाशील है तो और भी अच्छा. रचनाशीलता से आशय यह है कि वह चीजों को एक ऐसे नजरिए से देखने की क्षमता रखता हो जिस नजरिए से उसे इससे पहले किसी ने न देखा हो. मसलन उन्हें कहा जाए कि एक सूखे पेड़ पर निबंध लिखना है तो हजार शब्दों का निबंध लिखने में भी उन्हें कठिनाई न आए.

 

हरेक को अपनी मातृभाषा पर महारत हासिल होनी चाहिए लेकिन आज के भूमंडलीकृत विश्व में जानकारी और ज्ञान के स्रोत अंग्रेजी के भी होते हैं. इसलिए अंग्रेजी का इतना अवश्य ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि वे अंग्रेजी पढ़ सकें और उसको अपनी भाषा में अभिव्यक्त कर सकें. अगर अंग्रेजी बोलना आता हो तो आगे चलकर उन्हें अनेक अवसरों पर इसकी जरूरत पड़ेगी और उन्हें प्राथमिकता भी मिलेगी.

 

इन दिनों कई मीडिया हाउस ऐसे हैं जो अंग्रेजी और हिंदी दोनों के ही चैनल चलाते हैं. उनकी प्राथमिकता होती है कि उनका रिपोर्टर ऐसा हो जो हिंदी-अंग्रेजी दोनों जानता हो और दोनों चैनलों के लिए रिपोर्टिंग कर सके. लेकिन यह भी सच है कि अनेक सफल और योग्य हिंदी के पत्रकार ऐसे भी हैं जो बोलचाल की इतनी अंग्रेजी भी नहीं जानते कि वे रिपोर्टिंग कर सकें. इसलिए आप केवल हिंदी में भी रिपोर्टिंग कर सकते हैं लेकिन इसके लिए आपको साबित करना होगा कि आपकी रिपोर्टिंग में ऐसा दम है कि मीडिया हाउस आपको एक ही चैनल के लिए रखने को तैयार हो जाए.

 

और, आज तकनीक का जमाना है. वैसे तो यह मान ही सकते हैं कि आप सब लोग कम्प्यूटर और इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. अगर ऐसा नहीं कर रहे हैं तो सब कुछ छोड़कर सीधे कम्प्यूटर पर बैठ जाइए. घर पर कम्प्यूटर नहीं है तो साइबर कैफे की तरफ दौड़ पड़िए.

 

चाहे भारतीय जनसंचार संस्थान या कोई भी और संस्थान, ये मत मान बैठिए कि प्रवेश मिला और नौकरी आपकी झोली में आ गिरी. पहली बात तो पत्रकारीय कौशल प्राप्त करने के लिए कोर्स के दौरान भी आपको काफी मेहनत करनी पड़ेगी लेकिन अगर आप जाड़ों में खुले मैदान में धूप सेंकना चाहते हैं तो आपकी मर्जी.
 
लेकिन प्रवेश के वक्त आप जो होते हैं, संस्थान उसी के आधार पर आपको विकसित और परिष्कृत करता है. आपको ठोंक-पीटकर एक ऐसे साँचे में ढालता है कि आप समाचार उद्योग के विशाल ढांचे में कहीं फिट हो जाएं. लेकिन संस्थान या फैकल्टी काफी हद तक "फैसिलिटेटर" या रास्ता दिखाने भर की भूमिका अदा करते हैं. करना तो आपको ही होता है. और "तीन" का जो फार्मूला है, वो एक ऐसा फार्मूला है कि पत्रकारिता की दुनिया में जब तक आप हैं, उस पर अडिग रहिए. इसका विस्तार कर दीजिए लेकिन कटौती न करें. विस्तार से आशय यह है कि अकादमिक पत्रिकाएँ और किताबों की तरफ भी रूझान विकसित कीजिए.

 

समाचार मीडिया में आप जो भी करते हैं, वह तत्काल सबसे सामने होता है और गलती को सुधारने का वक्त आपके पास नहीं होता. इसलिए कोई भी समाचार संगठन तभी आपको नौकरी के योग्य पाएगा जब आपके अंदर एक न्यूनतम पत्रकारीय कौशल हो. पत्रकारिता संस्थान से निकलने के बाद भी हर समाचार संगठन ट्रेनी जर्नलिस्ट के रूप में नौकरी देता है और इसका आशय यही होता है कि समाचार संगठन ट्रेनी जर्नलिस्ट के रूप में आपको अपनी खास जरूरतों के लिए प्रशिक्षित करता है.

 

पत्रकारिता संस्थान में प्रवेश से लेकर मौटे तौर पर कम से कम अगले तीन वर्ष तक आपको इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र जैसे विषयों के बारे में पत्रकारीय ज्ञान और समझ हासिल करने के लिए निरंतर प्रयास करने चाहिए. इन तीन-चार वर्षों में आप जो आधार तैयार करेंगे, वह जीवन भर आपके काम आएगा और आपको इसे अपडेट करने भर की जरूरत पड़ेगी. ऐसा करने पर आप हर तरह के समाचारों का संपादन करने और इन पर रिपोर्टिंग करने में अधिक सक्षम होंगे. ये तीन-चार वर्ष अहम होते हैं, इस बात को कभी नहीं भूलिए और अगर आप इन तमाम फार्मूलों का पालन करते हैं तो शायद पत्रकारिता में आपका कैरियर ग्राफ सही दिशा में विकसित होता रहेगा.

 

महत्वाकांक्षाएं परिश्रम मांगती हैं और शार्टकट बहुत ही "शार्ट" होते हैं.

 
 
 
 
प्रो. सुभाष धूलिया
दो दशक तक आईआईएमसी में अध्यापक रहे प्रो. धूलिया इस समय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में संचार के प्रोफेसर और शिक्षा अनुसंधान और प्रशिक्षण विभाग के प्रमुख हैं.

1 comment:

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

प्रेरक आलेख. धन्यवाद!

-Sulabh Jaiswal