हिंदुस्तान अख़बार के दिल्ली संस्करण के स्थानीय संपादक श्री प्रमोद जोशी जी का यह लेख सीधे तौर पर आईआईएमसी की प्रवेश परीक्षा से संबंध नहीं रखता लेकिन इसमें जो कहा गया है, उसे समझ लेना पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखने वालों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है.
यह लेख मैं उन युवाओं के लिए लिख रहा हूँ जो जनसंचार की किसी विधा को अपनी आजीविका बनाने का फैसला कर चुके हैं या ऐसा करने की प्रक्रिया में हैं. उम्र के किसी न किसी चरण में आपने सोचा होगा कि मुझे सूचना और विचार के प्रसार की यह जिंदगी पसंद है. सबके अलग-अलग कारण हैं. फिर भी कुछ बातें आम हैं, जो तकरीबन सब पर लागू होती है.
प्रायः हर व्यवसाय और कारोबार में व्यक्ति अपनी छोटी दुनिया से निकलकर वृहत्तर विश्व से जुड़ता है. पत्रकार के सरोकार कुछ बड़े होते हैं. मैं वृहत्तर विश्व को जानकारी देने निकला हूं. और उसी विश्व से अपने ज्ञान का विस्तार करना चाहता हूं. कुछ जानने का रोमांच और कुछ बताने का कौशल. निरंतर संवाद, निरंतर संचार, निरंतर संधान और निरंतर विचार-विनिमय.
अपने अनुभव और ज्ञान के दायरे का लगातार विस्तार करना इस कर्म की पहली शर्त है. इस अनुभव और ज्ञान को समझ में आने लायक शब्दों, रूपकों, विम्बों, दृश्यों और ध्वनियों के मार्फत प्रेक्षक, श्रोता या पाठक के सामने रखना सबसे पड़ा कौशल है. पढ़ो-लिखो और समझो. फिर दूसरे को समझाओ. जिस बात को आप समझ नहीं पा रहे हैं, उसे दूसरों को नहीं समझा सकते.
हम इस कौशल को आजीविका बनाना चाहते हैं. आजीविका एक महत्वपूर्ण पहलू है. मनुष्य समाज का विकास इस तरह हुआ कि आर्थिक और उत्पादक गतिविधियां उसके मानसिक-सामाजिक-सांस्कृतिक कर्मों से जुड़कर चलती है. पढ़ना, सीखना और सोचना इस भौतिक क्रियाकलाप का अंग है. अपवाद छोड़ दें तो हम सब अपनी आजीविका के लिए ही पढ़ते और सीखते हैं.
अक्सर सुनाई पड़ता है कि पत्रकारिता अब प्रोफेशन है, मिशन नहीं रही. बेशक मिशन में गहरी पवित्रता है. 30 मई, 1826 को पंडित युगल किशोर शुक्ल ने 'हिंदुस्तानियों के हित हेतु' सर्वथा साधनहीन अवस्था में हिंदी का पहला साप्ताहिक पत्र 'उदंत मार्तंड' निकालना शुरू किया था. उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं था. वह मिशन था.
पर, अखबार निकालने के लिए साधनों की जरूरत होती है. उम्मीद थी कि हिंदी के पहले साप्ताहिक को सरकार और जनता का समर्थन मिलेगा. कुछ मिला, पर इतना नहीं कि पत्र चल पाता. एक अंक में उन्होंने लिखा...."कायस्थ फारसी-उर्दू पढ़ा करते हैं और वैश्य अक्षर समूह सीखकर बही-खाता करते हैं. खत्री बजाजी आदि करते हैं. पढ़ते-लिखते नहीं. और ब्राह्मणों ने तो कलियुगी ब्राह्मण बनकर पठन-पाठन को तिलांजलि दे रखी है. फिर हिंदी का समाचार पत्र कौन पढ़े और खरीदे..?" 4 दिसंबर, 1827 के अंक में उन्होंने मार्तंड के अस्त होने की सूचना दी. ऐसे प्रयास हमेशा होते रहेंगे. उनकी प्रशंसा होनी चाहिए. आर्थिक मजबूती की अनिवार्यता हमेशा बनी रहेगी. यह मजबूती सामाजिक परिस्थितियां देती हैं.
मिशनरी होना महानता है पर प्रोफेशनल होना पापकर्म नहीं है. अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक बल्कि व्यापारी भी जिम्मेदार और कार्यकुशल होने के कारण मिशनरी हो सकते हैं. इस अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति के पास जीवन का एक दृष्टिकोण या मिशन स्टेटमेंट होना चाहिए.
मीडिया के व्यवसाय में शामिल हो रहे युवाओं को मैं पहली सलाह दूंगा कि वे अपने लक्ष्यों को निर्धारित करें. प्रिंट, टीवी, रेडियो, विज्ञापन और प्रचार, जिस काम में वे जाएं, उसकी बुनियादी जरूरतों को समझें और ईमानदारी से काम करें. अपने अनुभव के आधार पर मैं कुछ सुझाव देना चाहता हूं, जो जीवन दर्शन भी बन सकते हैं.
रचनात्मक बनें. किसी भी काम को पूरा करने की पहले से सरल और प्रभावशाली पद्धति भी हो सकती है. उसे खोजें.
नयापन लाएं. हर रोज कोई नई किताब पढ़ें. किसी नए विषय को पढ़ें. किसी नए रास्ते से घर जाएं. किसी नए मित्र से मिलें. किसी नई दुकान से सामान खरीदें. किसी भी बात के ज्यादा से ज्यादा पहलू खोजें. किसी प्रशंसा, आलोचना, विचार या तर्क का दूसरा पहलू संभव है तो उसे भी खोजें. अपनी खबर, फिल्म, रचना या अभिव्यक्ति को ज्यादा से ज्यादा मानवीय दृष्टिकोण से देखें.
(जोशी जी का यह लेख आईआईएमसी एलुमनी मीट 2007 के मौके पर प्रकाशित स्मारिका 'ब्रिजेज़' से ली गई है.)
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