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Monday, April 30, 2012

सोशल मीडिया की बयार में बेसुध न बहें पत्रकार

हिन्दी पत्रकारिता विभाग के 1992-93 बैच के छात्र राजेश प्रियदर्शी इस समय लंदन में बीबीसी हिन्दी के डेस्क एडिटर हैं. बीबीसी के साथ पिछले 15 साल से जुड़े राजेश कैंपस से निकलने के बाद चार साल तक इंडिया टुडे में भी रहे.
पत्रकार का काम है समाचार देना, समाचार का महत्व और उसमें छिपी बातें पाठकों/श्रोताओं/दर्शकों को समझाना. पत्रकार का काम तो नहीं बदला है लेकिन उसके चारों तरफ़ की दुनिया पिछले एक दशक में बहुत बदल गई है. पत्रकारों के लिए सूचना का मुख्य स्रोत रही हैं समाचार एजेंसियाँ जिनकी ख़बरें आम आदमी तक सीधे नहीं पहुँचती, मगर अब दुनिया की सबसे बड़ी अनौपचारिक समाचार एजेंसियाँ ट्विटर और फेसबुक हैं. ऐसे में पत्रकारों के लिए यह चुनौती पैदा हो गई है कि कोई उन पर निर्भर क्यों रहे.

पत्रकारिता के छात्रों से प्रतियोगिता परीक्षा में यह उम्मीद की जा सकती है कि वे मीडिया के बदलते स्वरूप, बदलती भूमिका और बदलती ज़रूरतों को समझते हों. हर रोज़ युवराज सिंह, अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ ख़ान जैसी शख़्सियतों से जुड़ी ज़्यादातर ख़बरें सीधे ट्विटर के ज़रिए सामने आती हैं. वे किसी पत्रकार से नहीं बल्कि सीधे लोगों से बात कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में एक पत्रकार से यही उम्मीद की जाती है कि वह ख़बर को आगे ले जाए, उससे जुड़ी कोई दिलचस्प जानकारी सामने लाए या फिर पूरे मामले की पृष्ठभूमि समझाए. अगर कोई पत्रकार इन नए माध्यमों से अनभिज्ञ है तो उसे अपना रोज़मर्रा का काम करने दिक्कतें आ सकती हैं.

सोशल मीडिया की वजह से न सिर्फ़ समाचारों का प्रवाह तेज़ हुआ है बल्कि समाचारों को देखने का मीडिया संस्थानों का रवैया भी बदला है. पत्रकारिता की कुछ बरस पुरानी किताबें लगभग बेकार हो चुकी हैं जो ये तो बताती हैं कि समाचार के चयन का आधार उसका महत्व, व्यापकता, प्रासंगिकता वगैरह है. मगर अब समाचारों के चयन में इस बात का ध्यान भी रखा जाने लगा है कि फ़ेसबुक और ट्विटर पर उसके लोकप्रिय होने की कितनी संभावना है.

कुछ महीनों पहले जर्मनी की चासंलर एंगेला मर्केल पर ग़लती से एक वेटर ने बियर के गिलासों से भरी ट्रे उलट दी. यह सामान्य दुर्घटना है. समाचार की परंपरागत परिभाषा के मुताबिक़ न तो इसका कोई महत्व है, न कोई व्यापकता और न ही कोई प्रासंगिकता. मगर गंभीर समझे जाने वाले दुनिया भर के कई टीवी चैनलों ने इस दुर्घटना की वीडियो क्लिप दिखाई. यह सिर्फ़ एक उदाहरण है कि लोकरुचि समाचार किस तरह मुख्यधारा के समाचार बनते जा रहे हैं. इसकी वजह यही है कि लोकरुचि क्या है और कितनी है, इसका अनुमान लगाने के साधन हमारे पास मौजूद हैं, जो पहले नहीं थे.

2008 के मुंबई हमलों के दौरान, दुनिया भर के कई मीडिया संस्थानों ने ताज होटल के आसपास फंसे लोगों से मोबाइल पर इंटरव्यू प्रसारित किए थे जो वहाँ का आँखों देखा हाल बता रहे थे. जिन संस्थानों के पत्रकार वहाँ मौजूद नहीं थे उनके डेस्क के स्टाफ ने ट्विटर और फेसबुक की मदद से वहाँ मौजूद लोगों के मोबाइल नंबर ढूँढ निकाले थे. अरब देशों के जनविद्रोह में ही नहीं, बल्कि भारत में जन लोकपाल के समर्थन में उठे आंदोलन में सोशल मीडिया की भूमिका इतनी बड़ी रही है कि उसकी समझ नई पीढ़ी के पत्रकारों को होना ही चाहिए.

यह सब सुनने में सीधा लगता है मगर मामला बहुत जटिल है. सोशल मीडिया पर दिखने वाली बहुत सारी सामग्री विश्वसनीय नहीं हैं. यहाँ तक कि विकिपीडिया पर मिलने वाली जानकारियाँ कई बार ग़लत होती हैं. ट्विटर पर आए दिन तरह-तरह की अफ़वाहें उड़ती रहती हैं. यह एक पत्रकार के लिए बड़ी चुनौती है कि वह सोशल मीडिया का उपयोग तो करे मगर उसके ज़रिए आने वाली चीज़ों को फ़िल्टर करने की क्षमता उसके पास हो. इसे यूज़र जेनरेटेड कॉन्टेंट या यूजीसी कहा जाता है.

कई बार बहुत ही दिलचस्प चीज़ें आम लोग ब्लॉग जैसे माध्यमों पर लिखते हैं लेकिन उसमें ढेर सारा कचरा भी होता है. पत्रकार की भूमिका है कि वह सूचना के अंबार में से उपयोगी चीज़ें छाँट सके. कहीं बम फटने के बाद, आंतकवाद के बारे अल्लम-गल्लम बकने वाले लोगों के फेसबुक स्टेटस अपडेट और ट्विटर फ़ीड के अंबार में से, पुलिस प्रमुख, गृह मंत्री और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान निकाल पाना अपने आप में एक हुनर है जो नई पीढ़ी के पत्रकार को आना चाहिए.

इतना सब कहने का मतलब ये नहीं है कि सोशल मीडिया की बयार में पत्रकारों को बह जाना चाहिए. हमेशा सचेत और शंकालु रहना पत्रकार के लिए ज़रूरी है. इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सोशल मीडिया पढ़े-लिखे शहरी मध्य-वर्गीय युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, पूरे देश का नहीं. उसके आधार पर निष्कर्ष निकालने पर बहुत बड़ी ग़लतियाँ हो सकती हैं. मगर इतना ज़रूर है कि उसने पत्रकारिता पर गहरा असर डाला है.

आने वाले दिनों में उसकी अहमियत घटेगी नहीं बल्कि बढ़ेगी. प्रवेश परीक्षा के छात्रों के लिए अच्छा होगा कि वे सोशल मीडिया के असर, उसके कामकाज के तरीक़े, मुख्यधारा की मीडिया के साथ उसके संबंधों और जनता तक पहुँचने के लिए उसके इस्तेमाल के प्रभावी तरीक़ों के बारे में सवालों के जवाब लिखने के लिए तैयार हों.

शुभकामनाएं
राजेश प्रियदर्शी

Thursday, April 26, 2012

PROBABLE SET FOR SHORT NOTES- 2nd Part

Sandeep Kumar is topper of Hindi Journalism, 2005-06 Batch.
WHY THESE ARE/ WERE IN NEWS (20-30 WORDS)

SET- 04
01. STEVE JOBS
02. J DEY
03. SHREELAL SHUKLA
04. MOHAMED NASHEED
05. NCTC
06. SHAHRUKH KHAN
07. SUKHRAM
08. KIM JONG UN
09. S BANGARAPPA
10. NARENDRA MODI

SET- 05
01. BHANWRI DEVI
02. LT. GENERAL BIKRAM SINGH
03. AGNI-5
04. TESSY THOMAS
05. JIM YONG KIM
06. CHRISTINE LAGARDE
07. NANCY POWELL
08. VANYA MISHRA
09. JOY MUKHERJEE
10. ENCYCLOPAEDIA BRITANNICA


Monday, April 23, 2012

It is all about your creative communication

Tanushree passed out from IIMC in 2006. She did Advertising and Public Relations course from the institute. Tanu is currently working as an Academic Associate at Ad-PR department in IIMC.
Before this, Tanu worked in areas like Corporate Communication and Event Management. But somehow academic pulled her its way and thus She joined the institute. Simultaneously Tanu is pursuing PhD program from Jawaharlal Nehru University, New Delhi.
I Know getting into IIMC is a dream for all of you. And I am not wrong when I say it’s all about how creatively you can communicate in terms of both writing and speaking. I remember in my GD, I was asked very simple questions on my life and thoughts and ideologies but the jury was not expecting just plain answers, they were expecting creative answers.

So here are some tips to cut the competition:

Write Creatively:
So what does writing creatively means; If you notice the previous years question papers, you will realize that the questions and topics asked to write about are not very complicated ones like their could be topics like female feticide or Polio eradication campaign. Anybody who is reading little bit newspaper or watching TV can write on this. But the essence is how well you can write in the said word limit, what all things you have shared which can connect you with the Ad-PR course. It’s not only putting your thoughts but putting thing which shows your link as well as writing skills.

Be Aware:
This goes without saying that you have to be a sound knowledge of what is happening in the world, India and obviously what are the issues media has spoken about in the past year and issues on which media (Indian as well as global) was involved/held responsible. Read newspapers not one but at least two. Watch television, be it news channels, soap operas or movies.

Watch Movies:
There could be a question to write on a particular movie, so if not less, you can watch at least top 5 good movies of the year especially who are critic’s favorites. The answer should not only cover the summary but should be a critical summary.

Ad-PR Connection
Last but not the least; when you are applying for Ad-PR course, you should be aware of the industry. You should have knowledge of landmark campaigns that has cut the clichéd and some important campaigns of the recent years too. You should also be aware of who (brand) is saying what (tagline/positioning). Obviously they are not expecting you to be an expert coz for this you are applying to the course but least have a fair knowledge which can work as a prelude to the course.

Also you should be aware of the famous adverting personalities. To be updated for all the Advertising and PR related activity you can read on www.afaqs.com, wwww.excahnge4media.com and Brand Equity on Wednesdays with The Economic Times.

I hope this works for you.


See you at IIMC…
Tanushree

Sunday, April 22, 2012

कॉमन सेंस बेहद ज़रूरी है

एनडीटीवी के एसोसिएट पॉलिटिकल एडिटर अखिलेश शर्मा देश के जाने-पहचाने राजनीतिक पत्रकार हैं. इन्होंने दैनिक भास्कर से पारी की शुरुआत की थी. एनडीटीवी से पहले टीवीआई, बीबीसी-लंदन और आजतक में काम कर चुके हैं.
पत्रकार बनने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है कॉमन सेंस का होना. न तर्कशास्त्री होना, न मनोवैज्ञानिक होना, न भूगर्भशास्त्री होना, न गणितज्ञ होना. आपके पास अगर कॉमन सेंस है तो आपको पत्रकारिता तो छोड़िए जीवन के किसी चरण में कभी दिक्कत नहीं आएगी.

कॉमन सेंस कोई ऐसा विषय नहीं है जिसके लिए रात-रात भर जाग कर पढ़ाई करनी होती है. ये सेंस मनुष्य के जीवन में विकास के साथ विकसित होता चला जाता है.

मैं इस विषय को अब ज़्यादा नहीं उलझाऊँगा. कॉमन सेंस से मेरा मतलब है अपने आस-पास हो रही घटनाओं के बारे में प्रकृतिजन्य उत्सुकता होना और उनके बारे में जानकारी होना. कोई घटना अगर हो रही है तो क्यों हो रही है, इसका क्या परिणाम होगा, ये सामान्य कौतूहल है जो आपके कॉमन सेंस में बढोत्तरी करता है.

यहाँ इस कॉमन सेंस को जनरल नॉलेज से न जोड़ें. बल्कि अपनी आँखें खुली रखना, अपने कान खुले रखना. आसपास घटित हो रही घटनाओं को समझना, उनका मनन करना आपके कॉमन सेंस को बढ़ाता है.

मैं इस विषय पर ज़ोर इसलिए दे रहा हूँ क्योंकि जब 1993 में लिखित परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मैं आईआईएमसी में इंटरव्यू देने आया तब मेरे साथ एक बहुत मज़ेदार घटना हुई.

मैं आईआईएमसी कैंटीन में अपने वरिष्ठ दीपक चौरसिया के साथ था. उनके साथ उनके एक अन्य साथी थे जो आईआईएमसी से कोर्स कर चुके थे. दोनों की आपस में बात हो रही थी कि घर शिफ्ट करना है और उसके लिए कुछ फर्नीचर की ज़रूरत है.

तब उनकी बातचीत में पंचकुइयाँ रोड का ज़िक्र आया. ये बात हुई कि दिल्ली में फ़र्नीचर के लिए सबसे बेहतरीन जगह वही है. मैं दिल्ली पहली बार आया था और मेरे लिए ये नई जानकारी थी.

संयोग की बात है, अगले दिन इंटरव्यू में मुझसे इंदौर में मेरे पते के बारे में पूछा गया. मैंने इंदौर में अपना पता पंचकुइयाँ रोड ही लिखा था. प्रोफेसर जांगिड़ ने मुझसे पूछा कि इंदौर का ये पंचकुइयाँ रोड़ किस बात के लिए मशहूर हैं. मैंने कहा, श्मशान घाट के लिए. फिर उन्होंने पूछा दिल्ली में भी एक पंचकुइयां रोड है वो किसलिए मशहूर है. मैंने झट जवाब दिया, फ़र्नीचर के लिए. इसके बाद इंटरव्यू ख़त्म.

वैसे ये सिर्फ़ संयोग भर है. लेकिन इस घटना ने मुझे पत्रकारिता का पहला पाठ पढ़ा दिया.

मैं अगर 15 साल पहले के छात्रों को सलाह दे रहा होता तो मैं ये कहता की वो टीवी देखें. भाषा, उच्चारण, ख़बर के चयन, संवाददाताओं के रिपोर्टिंग के तरीके को देखने के लिए. लेकिन अफ़सोस अब हिंदी के चैनलों पर ये सारी चीज़ें नदारद हैं. अंग्रेज़ी के चैनलों को देख कर ही ख़बरों के चयन, प्रस्तुतिकरण आदि की जानकारी हो सकती है. अख़बार हिंदी और अंग्रेजी दोनों के पढ़ें. हिंदी के अख़बारों में अभी पत्रकारिता ज़िंदा है.

अनुवाद प्रश्नपत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. इस पर ध्यान दें. ये ध्यान रखें कि अंग्रेज़ी के पत्रकार लंबे-लंबे वाक्य लिखना अपना ज्ञान दिखाने का एक ज़रिया मानते हैं. लेकिन अनुवाद करते वक़्त हिंदी में छोटे-छोटे वाक्य बनाएं. क्योंकि हिंदी की ये सुंदरता है.

ये ध्यान रखें कि जिन विषयों पर आपसे लंबी और छोटी टिप्पणियाँ ली जाती हैं वो दरअसल आपके सामान्य ज्ञान को परखने के साथ आपकी विचारधारा का अंदाज़ा लगाने के लिए भी होती है. इसीलिए ये ध्यान रखें कि आप कॉलेज के कैंटीन में दोस्तों से बहस नहीं कर रहे हैं बल्कि देश के सबसे प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थान की प्रवेश परीक्षा में लिख रहे हैं. इसलिए आपके विचारों में संतुलन बेहद आवश्यक है चाहे आपकी विचारधारा जो भी हो.

ध्यान रहे परीक्षक भाषण पसंद नहीं करते. इसलिए संक्षेप में अपनी बात रखें. जिन विषयों के बारे में जानकारी नहीं हैं उन्हें बिल्कुल न छुएं. पत्रकारिता का एक सिद्धांत ये भी है- When in doubt, keep it out!!

इंटरव्यू में भी लंबी-लंबी छोड़ने से बचें. जितना पूछा गया है सिर्फ़ उतना ही जवाब दें. जवाब आत्मविश्वास से भरपूर होना चाहिए. इंटरव्यू लेने वाले वरिष्ठ पत्रकार होते हैं. वो दुनिया देख चुके होते हैं इसलिए उन्हें चलाने की कोशिश न करें. अगर कोई जवाब नहीं आता है तो माफ़ी मांग लें. आपका कोई नुकसान नहीं होगा.

और सबसे बड़ी बात. ये सवाल देर-सवेर ज़रूर पूछा जाएगा. आप पत्रकार क्यों बनना चाहते हैं. ख़ासकर आज पत्रकारिता की जो हालत है उसे देख कर तो ये सवाल हर आदमी आपसे पूछ रहा होगा. इसलिए बजाए समाज परिवर्तन, देश सेवा जैसी बड़ी-बड़ी बातें करने के साफ़-साफ़ बोल दें कि ये एक अच्छा कैरियर ऑप्शन है और मीडिया के क्षेत्र में जिस तरह से फैलाव हो रहा है उसके बाद आपको ये ठीक लगता है कि इसमें हाथ आज़माया जाए.


शुभकामनाओं के साथ
अखिलेश शर्मा
हिंदी पत्रकारिता, 1993-94

Thursday, April 19, 2012

अनुवाद धुरंधर सुशांत की सलाहः कैसा करें अनुवाद

आरटीवी विभाग के 2004-05 बैच के छात्र सुशांत झा डीडी न्यूज और इंडिया न्यूज में मुख्यधारा की पारी खेलने के बाद फिलहाल एक कंसल्टेंसी से जुड़े हैं और स्वतंत्र पत्रकारिता भी कर रहे हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी की मीडिया टीम का हिस्सा बने सुशांत अनुवाद के क्षेत्र में बहुत ही अच्छा काम कर रहे हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा की चर्चित किताब India After Gandhi का पेंग्विन के लिए सुशांत का अनुवाद दो किश्तों में भारतः गांधी के बाद और भारतः नेहरू के बाद जल्द ही हिन्दी पाठकों के बीच होगा. सुशांत इस समय जतिन गांधी और वीनू संधु की लिखी राहुल गांधी की पहली प्रामाणिक जीवनी Rahul का भी पेंग्विन के लिए हिन्दी में अनुवाद कर रहे हैं.
आईआईएमसी प्रवेश परीक्षा में उतीर्ण होने के लिए आपके आंख-कान खुले होने चाहिए कि देश-दुनिया में क्या हो रहा है और लोगों की जिंदगी पर कौन सी बातें असर डालती हैं. इसका जिक्र पहले के लेखों में किया जा चुका है कि क्या-क्या पढ़ें और क्या देखें-सुनें. अनुज रीतेश ने कहा कि मैं ब्लॉग के लिए अनुवाद पर ही लिखूं जो प्रश्नपत्र का एक हिस्सा रहता है. और ये भी लिखूं कि सवालों का जवाब कैसे दिया जाए.

तो पहले हम अनुवाद की बात कर लेते हैं.

आईआईएमसी प्रवेश परीक्षा के प्रश्न पत्र में एक सेक्शन अनुवाद का भी होता है. अनुवाद के लिए किसी अखबार या पत्रिका से एक पैरा उठाकर दे दिया जाता है और उसका हिंदी अनुवाद करने के लिए कहा जाता है. कई उम्मीदवार एक-एक शब्द का अनुवाद करने लगते हैं जिससे वाक्य बेतरतीब हो जाता है या बहुत लंबा हो जाता है और अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है. पूरी दुनिया में अनुवाद शब्दश: नहीं बल्कि भाव का किया जाता है. पहले आप समझिये कि मूल लेखक अपने लेखन में क्या कह रहा है फिर आप उसे अपनी सरल और सहज भाषा में हिंदी में लिख दीजिए.

अनुवाद के बाद एक बार मन ही मन उसे पढ़ जरूर लें और अनुदित सामग्री में अगर आपको अटकना पड़ें तो समझिए कि कुछ गड़बड़ है. कहीं प्रवाह टूट रहा है. अनुदित वाक्य अगर लंबा लग रहा है तो उसे बेदर्दी से दो या तीन वाक्य में बदल दीजिए. ख्याल रहे कि मूल कथ्य बिगड़े नहीं. न ही आप किसी शब्द को चबा लें. कई बार किसी शीर्षक या सब-हेडिंग का अनुवाद करते वक्त आप इतनी छूट ले सकते हैं कि उससे मिलते-जुलते खूबसूरत हिंदी मुहाबरे या किसी प्रसिद्ध गीत/शेर की पंक्ति को वहां दें.

मिसाल के तौर पर इस हेंडिंग को देखें- Picking up the pieces. यहां संदर्भ भारत की आजादी के बाद सैकड़ों रियासतों में बंटे देश के एकीकरण और उसके लिए किए गए भागीरथ प्रयासों का है. यहां अगर शब्दश: अनुवाद किया जाए तो मामला गड़बड़ हो जाएगा. यहां मेरे एक मित्र ने इसका अनुवाद सुझाया- और कांरवा बनता गया! लेख की विषयवस्तु के हिसाब से इसे अच्छा माना गया।

अब इस पैरा को देखें- ON THE AFTERNOON OF 22 APRIL 1498, a few kilometers off the shore of the East African port of Malindi, Captain-Major Vasco Da Gama was a happy man. After drifting for four frustrating months up the continent’s southeastern coast, from Mozambique to Mombasa, facing the hostility of local rulers and Arab and African merchants, the Portuguese captain had finally found a navigator who could take him to India.

अनुवाद- 22 अप्रैल 1498 की दोपहर को कैप्टन-मेजर वास्को डि गामा काफी खुश लग रहा था. उस समय वह पूर्वी अफ्रीका के बंदरगाह मालिंदी के तट से कुछ किलोमीटर की दूरी पर था. उसकी खुशी की वजह यह थी कि उसे भारत जाने का रास्ता मिल गया था. उससे पहले डिगामा अफ्रीका के दक्षिण-पूर्वी तट पर मोजाम्बिक से मोम्बासा तक चार महीनों तक भटकता रहा था और स्थानीय शासकों, अरबी और अफ्रीकी व्यापारियों के हमले झेल रहा था. आखिरकार उस पुर्तगाली कैप्टन को एक पथ-प्रदर्शक मिल ही गया जो उसे भारत ले जा सकता था.

ऊपर के अनुवाद में लंबे वाक्यों को दो या तीन वाक्यों में तोड़ा गया है ताकि पाठक को दिक्कत न हो. अनुवाद के समय अगर किसी शब्द का हू-ब-हू मतलब न निकल पा रहा हो पर आप भाव के नजदीक हों तो उसे अपने शब्दों में दो या तीन शब्दों में ही क्यों न व्यक्त करना पड़े- व्यक्त कर दें.

कई बार अंग्रेजी में किसी ऐसे शब्द का जिक्र कर दिया जाता है जो आम तौर पर हिंदी में प्रचलित नहीं होता. ऐसे में आपको वहां ब्रैकेट में उसे समझाना चाहिए. इस उदाहरण को देखें- ‘Kamraj was a thick-set man with a white moustache-according to one journalist, he looked ‘like a cross between Sonny Liston and the Walrus’.’

कामराज तगड़े डील-डौल के स्वामी थे और उनकी मूंछें सफेद थीं. एक पत्रकार के मुताबिक वे ' मशहूर बॉक्सर सनी लिस्टन और वालरस (आर्कटिक सागर में पाए जाने वाले ऊदबिलाव जैसा एक जानवर) के 'क्रॉसब्रीड' जैसे दिखते थे’!

अब यहां सनी लिस्टन और वालरस का जिक्र आया है तो हमें हिंदी में उसे स्पष्ट करना होगा कि ये सनी लिस्टन और वालरस क्या बला हैं. हमें ये भी ध्यान रखना होगा कि मोटे को मोटा न कहें, काले को काला न कहें. वैसे भी हमारे यहां काले को सांवला कहने का रिवाज है. हम ध्यान रखें कि किसी की भावनाएं आहत न हो, भले ही अंग्रेजी में उसे किसी भी तरह क्यों न लिखा गया हो.

हमें अनुवाद करते समय महिलाओं, दलितों, विकलांगों और अल्पसंख्यक समूह के बारे में किसी भी ऐसी बात को जगह नहीं देनी है जिससे या तो उनकी भावनाएं आहत होती हों या किसी तरह का वैमनस्य झलकता हो. अंग्रेजी में कई बार चीजों को हू-ब-हू लिख दिया जाता है, इस पर ध्यान देने की जरूरत है. यों ये बातें अनुवाद से बाहर भी जिंदगी के हर क्षेत्र में लागू होती हैं.

कई बार हम अंग्रेजी के बहु-प्रचलित शब्दों के अनुवाद में हिचकने लगते हैं. मिसाल के तौर पर यूनिवर्सिटी को क्या लिखें? यूनिवर्सिटी या विश्वविद्यालय. चूंकि यूनिवर्सिटी आम हिंदी की बोलचाल में आ गया है तो उसे यूनिवर्सिटी लिखा जा सकता है, वैसे आप विश्वविद्यालय लिखते हैं तो कोई हर्ज नहीं है. लेकिन हर अंग्रेजी शब्द को हू-ब-हू नहीं लिख देना है. बर्थडे का हिंदी जन्मदिन है और वहीं उचित भी है.

ये कुछ मोटी-मोटी बातें अनुवाद के बारे में हैं. यूं यह ऐसी विधा है जो अनुभव से और ज्यादा निखरती है. कई सारी ऐसी बातें हैं जो इस माध्यम पर उबाऊ बना देगा.

दूसरी बात प्रश्न का उत्तर कितने शब्दों में दें, यह समझना जरूरी है. इसके बारे में कोई फार्मूला नहीं है. एक फार्मूला ये जरूर है कि जवाब संतुष्टिजनक हों, तथ्यों का दुहराव न हो, कम शब्द खर्च हों तो बेहतर. पन्ना भरने से नंबर नहीं मिलते- ये बातें दसवीं-बारहवीं की परीक्षा में भी लागू होती है और आईआईएमसी में भी. सीधे मसले पर आएं, घुमा-फिराकर बातें न करें- किसी के पास वक्त नहीं है कि विस्तार में जाए.

वैचारिक प्रश्नों के जवाब देते समय मध्य-मार्ग सबसे बेहतर तरीका होता है. आप सेंटर टु लेफ्ट भी रहें तो ठीक है. आपके जवाब से व्यापक समाज के प्रति आपकी चिंता झलकनी ही चाहिए. देश की लोकतांत्रिक पद्धति, धर्मनिरपेक्षता, समग्र विकास, पर्यावरण, महिला अभिव्यक्तिकरण के प्रति आपकी चिंता आपके जवाब में अपेक्षित है.


शुभकामनाएं
सुशांत झा

Wednesday, April 18, 2012

दुनियादारी के जहां में दस्तक देने से पहले

पेशे से मूलतः किसान विभुराज चौधरी हिन्दी पत्रकारिता विभाग के 2008-09 बैच के छात्र रहे हैं. कैंपस से निकलने के बाद समाचार एजेंसी भाषा के साथ जुड़े और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई भी शुरू कर दी. फिलहाल दिल्ली छावनी परिषद के प्रवक्ता हैं.

जर्नलिज्म के स्कूलों में दाखिले के वक्त होने वाले इंटरव्यू और करियर शुरू करने के लिये खबरिया चैनलों और अखबार के दफ्तरों की खाक छान रहे नये लड़कों से ये सवाल अक्सरहां पूछा जाता है कि आप जर्नलिस्ट क्यूं बनना चाहते हैं?

इब्तिदा यहीं से करते हैं. क्यूंकि इक क्लासिक जवाब मौके की मारामारी में आपको इक मौका दिला सकती है इसलिये बेहतर है कि ये सवाल किसी और से सुनने से पहले खुद से करें. खुद को लाजवाब करें. यकीन मानिये दोस्तों! आधी मुश्किल आसान हो जायेगी.

जर्नलिज्म दुनियादारी से ज़ुदा चीज नहीं है. कोई रॉकेट साइंस भी नहीं है. बस दुनियाबी बातों को देखने का नजरिया भर है. आपकी संवेदनाएं आपसे सवाल करती हैं या नहीं और आप उन सवालों को दुनिया वालों से पूछते हैं या नहीं. बस इतना ही तो तय करना होता है इक जर्नलिस्ट को. माध्यम चाहे जो हो, टीवी हो, अखबार हो, पत्रिका हो या फिर न्यूज एजेंसी.

आईआईएमसी में दाखिला इक अलग तरह की चुनौती है. नामुमकिन नहीं पर मुश्किल जरूर है. रिटेन और फिर इंटरव्यू. चूंकि ये पेशा लिखने-पढ़ने का है इसलिये रिटेन क्वालीफाई करना लाजिमी है.

हम किसी दिये हुए टॉपिक पर जो कुछ भी लिखते हैं, वह कितना कन्विंसिंग है, कितना कैलकुलेटेड है और कितना सब्जेक्ट ओरियेंटेड है, रिटेन इक्ज़ाम में यही देखा जाता है. अगर लिखने के लिये कन्टेंट ज्यादा न हों तो तरीके से बातें बनाना भी किसी आर्ट से कम नहीं होता पर उसमें इक फ्लो, इक प्रवाह तो होना चाहिये न. अगर आप बात बनाने के उस्ताद नहीं हैं तो इस परीक्षा में ऐसा करके हाथ न जलाएं.

अखबारों में छपने वाले फीचर्स यही तो होते हैं. पर इससे पहले पढ़ने की आदत होनी चाहिये. किताबों से दोस्ती की चाहत रहे. आप जो जीते हैं और जो महसूस करते हैं, उसे लिखें. दुनिया में कहाँ क्या घट रहा है, उससे बाखबर रहें. उस पर अपनी राय बनाएं और तर्क के साथ उसे लिखें.

इक और बात जिसे समझना जरूरी है. कोई संस्थान प्लेसमेंट की गारंटी नहीं देता है और आईआईएमसी में तो कोई प्लेसमेंट सेल भी नहीं है पर इसकी अपनी इक अनकम्पेयेरेबल ब्रांड इक्विटी है. यहां हुनरमंद हाथों को काम मिल जाता है. काबिल लोगों के पास काम चलकर आता है. जॉब मार्केट के अपने फंडे होते हैं. आईआईएमसी आपको जॉब मार्केट में पहुंचा देगा, इसकी गारंटी है पर अपने कदम टिकाये रखना आपकी अपनी जिम्मेदारी होगी.

सबसे अच्छा कुछ नहीं होता है. सब तुलनात्मक है, सापेक्ष है. जो सबसे अच्छा होता है, वो आदर्श कहलाता है. आदर्श एक काल्पनिक स्थिति है. हम आदर्श की ओर बढ़ते हैं और कल्पनायें साकार हो जाती हैं.

जीवन ऐसे ही इक सफर का नाम है. आप नये सफर की तैयारी कर रहे हैं. बेहतर कल के लिये शुभकामनायें.


विभुराज चौधरी

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

आरटीवी 2005-06 बैच के अमित कनौजिया ज़ी बिज़नेस में हैं.
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत. यह अल्फाज़ काफी अहमियत रखता है. ये फलसफा सिर्फ IIMC प्रवेश परीक्षा में ही काम नहीं आएगा बल्कि तब भी जब आप पत्रकार बनकर मीडिया के मैदान में कदम रखेंगे.

दोस्तों जिस दिन हम ये तय करते हैं कि हमें पत्रकार बनना हैं. यकीं मानिए हम, दुनिया के दूसरे लोगों से अलग होने की राह पर बढ़ते हैं. यूं तो चुनौतियां दूसरे पेशे में भी कम नहीं लेकिन बतौर पत्रकार आप दिन-रात चुनौतियों का सामना करते हैं. ख़ास तौर पर टीवी पत्राकिरता में 24x7 चलने वाले न्यूज़ चैनल्स में ब्रेकिंग न्यूज़ की बाढ़ में आपका हर कसौटी पर इम्तिहान होता है.

खैर अभी आपको IIMC ENTRANCE EXAMS से पार पाना हैं. परीक्षा का वक्त करीब आता जा रहा हैं. हर बार की तरह इस बार भी IIMC में सीट पक्की करने के लिए होड़ लगने वाली हैं. रेडियो एंड टीवी पत्रकारिता विभाग काफी लोकप्रिय है. इसमें जगह पाने के लिए काफी कड़ा मुकाबला होता है.

RTV  में प्रवेश के लिए सबसे ज़रूरी है कि आपको खुद पर भरोसा हो. लोग आपको ये कहते मिल सकते हैं कि RTV में बहुत कम सीट हैं, इसमें नहीं होगा या फिर आप टीवी मीडिया में दिखने लायक नहीं हैं या फिर आपकी आवाज़ अच्छी नहीं है. खुद पर भरोसा रखिए. RTV  आप जैसे तमाम उन छात्र-छात्राओं के लिए हैं जिनके पास आत्मविश्वास हो, देश-दुनिया की जानकारी हो और जो खुद को ख़बरों से जोड़ने का जुनून रखते हैं.

IIMC  की लिखित परीक्षा पास करने के लिए ज़रूरी नहीं कि आप हर विषय के मास्टर हों. ज़रूरत है हर विषय में पर्याप्त जानकारी और उसे अपने अंदाज़ में उत्तर में लिखने की. प्रवेश परीक्षा में लिखने की कला बहुत ज़रूरी हैं. आपके शब्द ही परीक्षक के सामने आपकी पहचान बनेंगे.

मेरे हिसाब से RTV  की लिखित परीक्षा में इन बातों का ध्यान रखना चाहिए
1. अगर सवाल का जवाब 200 शब्दों में लिखने को कहा जाए तो आपका जवाब 200 शब्दों में ही समाप्त होना चाहिए. शब्द सीमा का विशेष ध्यान रखें.
2. किसी विषय अगर आपके पास ज़्यादा जानकारी नहीं हैं तो जो जानकारी है उसे ही लिखे. बेवजह इधर-उधर घुमाकर पेज ना भरें.
3. प्रश्न का उत्तर देते समय उसके मूल उद्देश्य से ना भटकें. तथ्यों को लिखें और स्पष्ट लिखें. आपको अनावश्यक बड़ा उत्तर लिखने के नंबर नहीं मिलने वाले.
4. RTV के मॉडल पेपर या फिर पिछले साल के पेपर सेट देखकर रोज़ाना लिखने की प्रैक्टिस करें. आपके पास जानकारी तो बहुत होती है लेकिन उसे शब्द सीमा और समय सीमा के अनुसार लिखने में मुश्किल होती है.
5. देश-विदेश के तमाम बड़ी घटनाओं के बारे में परीक्षा में पूछा ही जाता है. लेकिन कुछ सवाल जैसे हाल में पढ़ी किसी किताब की समीक्षा, हाल में देखी किसी फिल्म की समीक्षा, पसंदीदा अखबार-टीवी चैनल और पसंद की वजह अक्सर पूछे जाते हैं. इन पर लिखने का विशेष ध्यान रखें. समसामयिक घटनाओं के बारे में तो अखबार में पढ़ने का मौका मिल जाता है लेकिन इन मुद्दों पर आपको अपनी सोच के मुताबिक आलोचनात्मक टिप्पणी करनी होती है.

इसके बाद बारी आती हैं इंटरव्यू की. जैसा कि आपको पता हैं कि 85 अंक की लिखित परीक्षा और 15 अंक इंटरव्यू के लिए हैं. ये आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण राउंड है. RTV का इंटरव्यू EJ, HJ, AD&PR से थोड़ा अलग होता है क्योंकि इसमें इंटरव्यू के दौरान ही पीस टू कैमरा (PTC) करने के लिए कहा जाता है. आप कैमरे के सामने कितने सहज हैं, आपमें कितना आत्मविश्वास है, इसकी जांच-परख हो जाती है. इंटरव्यू में मिलने वाले नंबर पर इसका बहुत फर्क पड़ता है.

आमतौर पर इंटरव्यू में भी समसामयिक सवाल ही पूछे जाते हैं या फिर आप इंटरव्यू को जिस ओर मोड़कर ले जाएं. इंटरव्यू लेने वाले कोई सवाल तय करके नहीं बैठते कि यही पूछना है. हो सकता है कि आपके घर-परिवार-पढ़ाई से शुरू होने वाले सवाल किसी ऐसी दिशा में मुड़ जाएं जो आपके कमांड एरिया में हों. और खतरा इस बात का भी है कि आपके जवाब से उपजे सवाल आपको वहां लेकर चले जाएं जिससे आप अनजान हों.

अगर आपको किसी सवाल का जवाब नहीं पता है तो सीधे-सीधे ये बता देना बेहतर होता है कि मुझे इस बारे में नहीं पता है. इससे सवाल पूछने वाले सवाल का विषय बदल देते हैं और उस समय आपको बड़ी राहत मिलती है कि एक जटिल विषय से मुक्ति मिली. इंटरव्यू में ऐसा बहुत लोगों के साथ होता है कि जब उन्हें एक बार लग जाता है कि वो गलत हैं तो फिर उनका आत्मविश्वास डगमगाने लगता है. इसे बनाए रखने के लिए सवाल पूछने वालों से ईमानदारी से बात करनी चाहिए. सबसे सही तरीका ये है कि जवाब आता है तो ठीक और नहीं आता है तो इंटरव्यू लेने वालों को खेद के साथ बता दें कि आपने इस बारे में नहीं पढ़ा है. ऐसे में आम तौर पर अगला सवाल ये रहता है कि आप ही बताइए कि आपने क्या पढ़ा है. तब आपको ऐसे विषय पर ही बात बढ़ानी चाहिए जिसे आप ठीक से जानते हों. अगर ये ऑप्शन मिलने के बाद आप इंटरव्यू करने वालों के सवालों का जवाब नहीं दे पाए तो फिर आपका पैक-अप तय है.

इंटरव्यू के दिन सुबह-सुबह अखबार पढ़ लें और समाचार चैनलों के एक नजर देख लें कि कहीं कोई बड़ी खबर तो नहीं चल रही. इंटरव्यू में जब आपसे पसंद के चैनल और अखबार पूछे जाते हैं तो जवाब में मिलने वाले अखबार या चैनल पर उस दिन की बड़ी खबरों का हिसाब भी ले लिया जाता है. बहुत संभव है कि उसी मुद्दे पर आपसे 30 से 40 सेकेंड कैमरे के सामने बोलने के लिए कहा जाए.

एक सवाल का तार्किक जवाब आपके पास ज़रूर होना चाहिए कि आप पत्रकार क्यों बनना चाहते हैं. मेरी सलाह ये रहेगी कि इस सवाल के जवाब में देश सेवा या समाज बदलने जैसे रूटीन जवाब ना दें अगर इस जवाब के लिए तर्क मांगने पर आप इधर-उधर झांकने लगें. बाकी आप खुद समझदार होंगे.

विवेकानंदजी का एक ब्रह्मवाक्य कहना चांहूगा Victory sure to come. परीक्षा की तैयारी कर रहे मित्रों को शुभकामनाएं. उम्मीद है कि आपसे IIMC कैंपस मुलाकात होगी.


बेस्ट ऑफ लक.
अमित कनौजिया
RTV JOURNALISM, 2005-05

Tuesday, April 17, 2012

बनावटी होने से बचें अपने उत्तरों में

2006-07 बैच में हिन्दी पत्रकारिता विभाग के टॉपर सौरभ द्विवेदी स्टार न्यूज, लाइव इंडिया और नवभारत टाइम्स के रास्ते दैनिक भास्कर के समाचार संपादक तक का सफर तय कर चुके हैं. चंडीगढ़ भास्कर में सिटी लाइफ की अगुवाई कर रहे सौरभ की फिल्म और राजनीति में गहरी दिलचस्पी है.
पंडित भीमसेन जोशी का एक भजन है. राग भैरवी में. बोल हैं- जो भजे हरि को सदा, सो ही परम पद पाएगा.

आप लोगों के लिए लिखते हुए यही सुन और गुन रहा हूं. क्यों, क्योंकि दुनिया का सबसे शानदार काम भी इस दर्शन को ही भजता है. बस यहां हरि की जगह उनके जन को भजने का काम करना होता है.

दूरदर्शन के दिनों में अकसर धार्मिक सीरियल देखने होते थे. गांव में होता तो अतिरिक्त श्रद्धा के साथ अगल-बगल वालों को देखता जो बस झुक ही जाते थे टीवी के सामने. मगर सीरियल की कथा में जब नारद आते तो दर्शक कभी कुढ़मुढ़ाते तो कभी हंसते. क्या था नारद का काम, इधर की उधर करना ताकि पुरोहित और पंडित (विशाल भारद्वाज की मकबूल) के शब्दों में कहें तों, संतुलन बने रहना जरूरी है. आग के लिए पानी का डर.

तो हम भी इधर की उधर करते हैं. बस नीयत और मकसद का फर्क बदल जाता है. जब हम पत्रकार बनते हैं तो दरअसल हम एक ऐसे जादूगर में तब्दील हो जाते हैं जिसे एक चेहरे पर कई चेहरे लगाने की वैधानिक छूट मिल जाती है. जब हम बम पीड़ित महिला की चीख के बीच उसके बेटे से बात करते हैं तो वात्सल्य और करुणा का रंग हमें भी कुछ जर्द कर देता है. जब हम किसी राजनेता से बात करते हैं तो एक लोभी (खबरों या किसी और चीज के...) और शातिर बिलौटे में तब्दील हो जाते हैं जो चौकन्ना है, हर कही गई और अनकही बात को जज्ब करने के लिए. जब हम भारत-पाक मैच के लिए स्टेडियम में होते हैं तो एक ऐसे सिरफिरे काफिर की तरह जो खुद को जन्नत में पाकर कह-कहे लगा रहा है.

बरकत वाला धंधा है ये. बस शऊर होना चाहिए इसमें जीने का. क्योंकि जी गए तो जीत गए. वो कहते हैं न कि सर सलामत तो सल्तनत हजार. पर ध्यान रखिए कि सर को सलामत आत्मसम्मान रखता है, थोड़ी सी ईमानदारी रखती है, कुछ सच्चाई भी. जीने और जीतने के लिए आपके सरवाइवल जीन का सेल्फिश होना जरूरी है. और इस जरूरत को आप आईआईएमसी में सीख सकते हैं.

आईआईएमसी एक कोख है, जहां आप नौ महीने अपनी संभावनाओं को इसकी नाल से जोड़ने आते हैं. ये गर्म है, सुरक्षित है, पोषण देने वाली है, बशर्ते आप ठीक ढंग से जुड़े हों. क्या करें इस जुड़ाव के लिए, एक भ्रूण बन इसमें घुस आने के लिए...

अंत के लिए आरंभ की ओर लौटते हैं. जो भजे जन को सदा. पत्रकार बनने की एकमात्र शर्त यही है कि आपको हर आदमी एक बांचती किताब सा दिखे. मैं अक्सर क्लास में भी यही बात दोहराता हूं कि अखबार लोगों के लिए निकलता है, उन्हें लोगों की बातें जाननी होती हैं और ये आप को तय करना है कि कैसे सुनाएंगे.

हर जिंदा आदमी एक डिक्शनरी होता है. उसके बोलने का ढंग, अंदाज आपकी मेमोरी बैंक में कुछ केबी घेर सकता है. उसकी तुर्शी और सोच आपको इस जन के बारे में जानकारी के स्तर पर कुछ समृद्ध कर सकती है. इसलिए लोगों से मिलें-जुलें, उन्हें उनकी मांद में जाकर तलाशें और फिर इस अनुभव का इस्तेमाल अपने उत्तरों में करें, अपनी समझ में करें.

क्या ये मुमकिन नहीं कि यूपी के चुनावों के विश्लेषण के दौरान भदोही के या छपरा के उस रिक्शे वाले का जिक्र हो जो आपको इस एग्जाम के लिए स्टेशन पहुंचाकर आया है. उसकी राय भी तो आपके उत्तर का हिस्सा बन सकती है. आपकी मां, टीचर, पड़ोसी की प्रतिक्रिया किसी भी समाज और राजनीतिशास्त्री जितनी मानीखेज हो सकती है.

इसलिए बेईमान और बनावटी होने से बचें अपने उत्तरों में. अपनी भाषा और जन के प्रति आंखें खोलकर रखें क्योंकि वही हैं, जो आपको उन ढाई घंटों के दरम्यान आने वाले ख्यालों में तर्क और लहजा मुहैया कराएंगे.

इधर चंडीगढ़ में पिछले कुछ दिनों से बारिश हो रही है. मेरे आईआईएमसी की मिट्टी भी गीली हो रही होगी उधर दिल्ली में. कुछ किसान हल का फल देख रहे हैं. बीज तैयार हैं क्या. आप तैयार हैं क्या...

वो साहिर कहते थे न...

हर नस्ल एक पौध है धरती की
जो पक जाने पर कटती है
कल और भी आएंगे
नगमों की खिलती कलियां चुनने वाले
हमसे बेहतर कहने वाले
तुमसे बेहतर सुनने वाले


...तो आओ इस दुनिया में तुम्हारा स्वागत है
सौरभ द्विवेदी

सौरभ का पिछला ब्लॉग- तो क्यों आना चाहते हो इस धंधे में