पत्रकार का काम है समाचार देना, समाचार का महत्व और उसमें छिपी बातें पाठकों/श्रोताओं/दर्शकों को समझाना. पत्रकार का काम तो नहीं बदला है लेकिन उसके चारों तरफ़ की दुनिया पिछले एक दशक में बहुत बदल गई है. पत्रकारों के लिए सूचना का मुख्य स्रोत रही हैं समाचार एजेंसियाँ जिनकी ख़बरें आम आदमी तक सीधे नहीं पहुँचती, मगर अब दुनिया की सबसे बड़ी अनौपचारिक समाचार एजेंसियाँ ट्विटर और फेसबुक हैं. ऐसे में पत्रकारों के लिए यह चुनौती पैदा हो गई है कि कोई उन पर निर्भर क्यों रहे.
पत्रकारिता के छात्रों से प्रतियोगिता परीक्षा में यह उम्मीद की जा सकती है कि वे मीडिया के बदलते स्वरूप, बदलती भूमिका और बदलती ज़रूरतों को समझते हों. हर रोज़ युवराज सिंह, अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ ख़ान जैसी शख़्सियतों से जुड़ी ज़्यादातर ख़बरें सीधे ट्विटर के ज़रिए सामने आती हैं. वे किसी पत्रकार से नहीं बल्कि सीधे लोगों से बात कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में एक पत्रकार से यही उम्मीद की जाती है कि वह ख़बर को आगे ले जाए, उससे जुड़ी कोई दिलचस्प जानकारी सामने लाए या फिर पूरे मामले की पृष्ठभूमि समझाए. अगर कोई पत्रकार इन नए माध्यमों से अनभिज्ञ है तो उसे अपना रोज़मर्रा का काम करने दिक्कतें आ सकती हैं.
सोशल मीडिया की वजह से न सिर्फ़ समाचारों का प्रवाह तेज़ हुआ है बल्कि समाचारों को देखने का मीडिया संस्थानों का रवैया भी बदला है. पत्रकारिता की कुछ बरस पुरानी किताबें लगभग बेकार हो चुकी हैं जो ये तो बताती हैं कि समाचार के चयन का आधार उसका महत्व, व्यापकता, प्रासंगिकता वगैरह है. मगर अब समाचारों के चयन में इस बात का ध्यान भी रखा जाने लगा है कि फ़ेसबुक और ट्विटर पर उसके लोकप्रिय होने की कितनी संभावना है.
कुछ महीनों पहले जर्मनी की चासंलर एंगेला मर्केल पर ग़लती से एक वेटर ने बियर के गिलासों से भरी ट्रे उलट दी. यह सामान्य दुर्घटना है. समाचार की परंपरागत परिभाषा के मुताबिक़ न तो इसका कोई महत्व है, न कोई व्यापकता और न ही कोई प्रासंगिकता. मगर गंभीर समझे जाने वाले दुनिया भर के कई टीवी चैनलों ने इस दुर्घटना की वीडियो क्लिप दिखाई. यह सिर्फ़ एक उदाहरण है कि लोकरुचि समाचार किस तरह मुख्यधारा के समाचार बनते जा रहे हैं. इसकी वजह यही है कि लोकरुचि क्या है और कितनी है, इसका अनुमान लगाने के साधन हमारे पास मौजूद हैं, जो पहले नहीं थे.
2008 के मुंबई हमलों के दौरान, दुनिया भर के कई मीडिया संस्थानों ने ताज होटल के आसपास फंसे लोगों से मोबाइल पर इंटरव्यू प्रसारित किए थे जो वहाँ का आँखों देखा हाल बता रहे थे. जिन संस्थानों के पत्रकार वहाँ मौजूद नहीं थे उनके डेस्क के स्टाफ ने ट्विटर और फेसबुक की मदद से वहाँ मौजूद लोगों के मोबाइल नंबर ढूँढ निकाले थे. अरब देशों के जनविद्रोह में ही नहीं, बल्कि भारत में जन लोकपाल के समर्थन में उठे आंदोलन में सोशल मीडिया की भूमिका इतनी बड़ी रही है कि उसकी समझ नई पीढ़ी के पत्रकारों को होना ही चाहिए.
यह सब सुनने में सीधा लगता है मगर मामला बहुत जटिल है. सोशल मीडिया पर दिखने वाली बहुत सारी सामग्री विश्वसनीय नहीं हैं. यहाँ तक कि विकिपीडिया पर मिलने वाली जानकारियाँ कई बार ग़लत होती हैं. ट्विटर पर आए दिन तरह-तरह की अफ़वाहें उड़ती रहती हैं. यह एक पत्रकार के लिए बड़ी चुनौती है कि वह सोशल मीडिया का उपयोग तो करे मगर उसके ज़रिए आने वाली चीज़ों को फ़िल्टर करने की क्षमता उसके पास हो. इसे यूज़र जेनरेटेड कॉन्टेंट या यूजीसी कहा जाता है.
कई बार बहुत ही दिलचस्प चीज़ें आम लोग ब्लॉग जैसे माध्यमों पर लिखते हैं लेकिन उसमें ढेर सारा कचरा भी होता है. पत्रकार की भूमिका है कि वह सूचना के अंबार में से उपयोगी चीज़ें छाँट सके. कहीं बम फटने के बाद, आंतकवाद के बारे अल्लम-गल्लम बकने वाले लोगों के फेसबुक स्टेटस अपडेट और ट्विटर फ़ीड के अंबार में से, पुलिस प्रमुख, गृह मंत्री और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान निकाल पाना अपने आप में एक हुनर है जो नई पीढ़ी के पत्रकार को आना चाहिए.
इतना सब कहने का मतलब ये नहीं है कि सोशल मीडिया की बयार में पत्रकारों को बह जाना चाहिए. हमेशा सचेत और शंकालु रहना पत्रकार के लिए ज़रूरी है. इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सोशल मीडिया पढ़े-लिखे शहरी मध्य-वर्गीय युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, पूरे देश का नहीं. उसके आधार पर निष्कर्ष निकालने पर बहुत बड़ी ग़लतियाँ हो सकती हैं. मगर इतना ज़रूर है कि उसने पत्रकारिता पर गहरा असर डाला है.
आने वाले दिनों में उसकी अहमियत घटेगी नहीं बल्कि बढ़ेगी. प्रवेश परीक्षा के छात्रों के लिए अच्छा होगा कि वे सोशल मीडिया के असर, उसके कामकाज के तरीक़े, मुख्यधारा की मीडिया के साथ उसके संबंधों और जनता तक पहुँचने के लिए उसके इस्तेमाल के प्रभावी तरीक़ों के बारे में सवालों के जवाब लिखने के लिए तैयार हों.
शुभकामनाएं
राजेश प्रियदर्शी