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Tuesday, April 17, 2012

बनावटी होने से बचें अपने उत्तरों में

2006-07 बैच में हिन्दी पत्रकारिता विभाग के टॉपर सौरभ द्विवेदी स्टार न्यूज, लाइव इंडिया और नवभारत टाइम्स के रास्ते दैनिक भास्कर के समाचार संपादक तक का सफर तय कर चुके हैं. चंडीगढ़ भास्कर में सिटी लाइफ की अगुवाई कर रहे सौरभ की फिल्म और राजनीति में गहरी दिलचस्पी है.
पंडित भीमसेन जोशी का एक भजन है. राग भैरवी में. बोल हैं- जो भजे हरि को सदा, सो ही परम पद पाएगा.

आप लोगों के लिए लिखते हुए यही सुन और गुन रहा हूं. क्यों, क्योंकि दुनिया का सबसे शानदार काम भी इस दर्शन को ही भजता है. बस यहां हरि की जगह उनके जन को भजने का काम करना होता है.

दूरदर्शन के दिनों में अकसर धार्मिक सीरियल देखने होते थे. गांव में होता तो अतिरिक्त श्रद्धा के साथ अगल-बगल वालों को देखता जो बस झुक ही जाते थे टीवी के सामने. मगर सीरियल की कथा में जब नारद आते तो दर्शक कभी कुढ़मुढ़ाते तो कभी हंसते. क्या था नारद का काम, इधर की उधर करना ताकि पुरोहित और पंडित (विशाल भारद्वाज की मकबूल) के शब्दों में कहें तों, संतुलन बने रहना जरूरी है. आग के लिए पानी का डर.

तो हम भी इधर की उधर करते हैं. बस नीयत और मकसद का फर्क बदल जाता है. जब हम पत्रकार बनते हैं तो दरअसल हम एक ऐसे जादूगर में तब्दील हो जाते हैं जिसे एक चेहरे पर कई चेहरे लगाने की वैधानिक छूट मिल जाती है. जब हम बम पीड़ित महिला की चीख के बीच उसके बेटे से बात करते हैं तो वात्सल्य और करुणा का रंग हमें भी कुछ जर्द कर देता है. जब हम किसी राजनेता से बात करते हैं तो एक लोभी (खबरों या किसी और चीज के...) और शातिर बिलौटे में तब्दील हो जाते हैं जो चौकन्ना है, हर कही गई और अनकही बात को जज्ब करने के लिए. जब हम भारत-पाक मैच के लिए स्टेडियम में होते हैं तो एक ऐसे सिरफिरे काफिर की तरह जो खुद को जन्नत में पाकर कह-कहे लगा रहा है.

बरकत वाला धंधा है ये. बस शऊर होना चाहिए इसमें जीने का. क्योंकि जी गए तो जीत गए. वो कहते हैं न कि सर सलामत तो सल्तनत हजार. पर ध्यान रखिए कि सर को सलामत आत्मसम्मान रखता है, थोड़ी सी ईमानदारी रखती है, कुछ सच्चाई भी. जीने और जीतने के लिए आपके सरवाइवल जीन का सेल्फिश होना जरूरी है. और इस जरूरत को आप आईआईएमसी में सीख सकते हैं.

आईआईएमसी एक कोख है, जहां आप नौ महीने अपनी संभावनाओं को इसकी नाल से जोड़ने आते हैं. ये गर्म है, सुरक्षित है, पोषण देने वाली है, बशर्ते आप ठीक ढंग से जुड़े हों. क्या करें इस जुड़ाव के लिए, एक भ्रूण बन इसमें घुस आने के लिए...

अंत के लिए आरंभ की ओर लौटते हैं. जो भजे जन को सदा. पत्रकार बनने की एकमात्र शर्त यही है कि आपको हर आदमी एक बांचती किताब सा दिखे. मैं अक्सर क्लास में भी यही बात दोहराता हूं कि अखबार लोगों के लिए निकलता है, उन्हें लोगों की बातें जाननी होती हैं और ये आप को तय करना है कि कैसे सुनाएंगे.

हर जिंदा आदमी एक डिक्शनरी होता है. उसके बोलने का ढंग, अंदाज आपकी मेमोरी बैंक में कुछ केबी घेर सकता है. उसकी तुर्शी और सोच आपको इस जन के बारे में जानकारी के स्तर पर कुछ समृद्ध कर सकती है. इसलिए लोगों से मिलें-जुलें, उन्हें उनकी मांद में जाकर तलाशें और फिर इस अनुभव का इस्तेमाल अपने उत्तरों में करें, अपनी समझ में करें.

क्या ये मुमकिन नहीं कि यूपी के चुनावों के विश्लेषण के दौरान भदोही के या छपरा के उस रिक्शे वाले का जिक्र हो जो आपको इस एग्जाम के लिए स्टेशन पहुंचाकर आया है. उसकी राय भी तो आपके उत्तर का हिस्सा बन सकती है. आपकी मां, टीचर, पड़ोसी की प्रतिक्रिया किसी भी समाज और राजनीतिशास्त्री जितनी मानीखेज हो सकती है.

इसलिए बेईमान और बनावटी होने से बचें अपने उत्तरों में. अपनी भाषा और जन के प्रति आंखें खोलकर रखें क्योंकि वही हैं, जो आपको उन ढाई घंटों के दरम्यान आने वाले ख्यालों में तर्क और लहजा मुहैया कराएंगे.

इधर चंडीगढ़ में पिछले कुछ दिनों से बारिश हो रही है. मेरे आईआईएमसी की मिट्टी भी गीली हो रही होगी उधर दिल्ली में. कुछ किसान हल का फल देख रहे हैं. बीज तैयार हैं क्या. आप तैयार हैं क्या...

वो साहिर कहते थे न...

हर नस्ल एक पौध है धरती की
जो पक जाने पर कटती है
कल और भी आएंगे
नगमों की खिलती कलियां चुनने वाले
हमसे बेहतर कहने वाले
तुमसे बेहतर सुनने वाले


...तो आओ इस दुनिया में तुम्हारा स्वागत है
सौरभ द्विवेदी

सौरभ का पिछला ब्लॉग- तो क्यों आना चाहते हो इस धंधे में

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