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Wednesday, May 22, 2013

गुरू हम आ गए, अब शुरू हो जाएं...

सौरभ द्विवेदी. आईआईएमसी से हिंदी पत्रकारिता की पढ़ाई की 2006-07 में. उसके पहले और बाद में जेएनयू से पढ़ाई की. स्टार न्यूज और लाइव इंडिया से होते हुए नवभारत टाइम्स पहुंचे. फिर तीन बरस दैनिक भास्कर में न्यूज एडिटर रहे. फिलहाल करियर के अगले शो के लिए फुल ड्रेस रिहर्सल कर रहे हैं. सारे टिकट बिक चुके हैं और हूटिंग की सीटियां बैकस्टेज तक सुनाई दे रही हैं.

जब तुम घर से निकलोगे, इस्तरी की हुई कमीज पहने, झोले में अचार, आलू और पूड़ी रखे. सबसे ऊपर कुछ नोट्स और कटिंग रखे. तो माई चलते वक्त गीली आंखों और कुछ कांपते हाथों से माथे पर रोली लगाएगी. साथ में चावल के कुछ दाने होंगे, जो कुछ ही देर में गिर पड़ेंगे. बीज का काम है गिरना, मगर पनपने के लिए सही, जमीन जरूरी है. तुम एक बीज हो, अपार संभवानाओं से भरे, तुम्हें जो जमीन चाहिए, उसे यकीन कहते हैं. क्या कहा, कैसा दिखता है ये, ठीक सामने ही तो खड़ा है संजीदगी का लिहाफ ओढ़े. जब घर से निकलो, तो कनखियों से पिता जी के चेहरे की तरफ देख लेना. यकीन दिख जाएगा. इस यकीन को अपनी जींस की पॉकेट के ऊपर बनी छोटी पॉकेट में सहेजकर रख लेना. इतना सहेज कर कि पैंट फटकारा जाए, खूंटी से गिर पड़े या धुलकर भी आ जाए, तो भी ये वहीं अड़ा खड़ा बैठा रहे.

आईआईएमसी और उसके बाद जिस जंगल में तुम्हारा बसेरा होगा, वहां ये यकीन के बीज बहुत काम आएंगे. पहला यकीन, जो बलबन के वक्त की याद दिलाते लाल पत्थरों वाली दिल्ली से प्रेरित आईआईएमसी की इमारत को देखकर आता है. वह है कि आओ और इन पत्थरों के ओसारे के भीतर कुछ जिज्ञासाएं, कुछ खिलखिलाहटें, तेज बहसें, यारबाजी और उन सबसे बढ़कर गर्म लहू में पकते ख्याल बिखेर दो.

मगर यकीन तो मिड्ल क्लास की बचत की तरह ही बचा है. कहां कितना खर्च करें. नई टीशर्ट, जूते, फोन या फिर किताबें... सब की सब तो अपने हिस्से का इन्स्टॉलमेंट मांगने में लगी रहती हैं. अकादमिक दुनिया की बात करें, तो यहां भी मंगतों की कमी नहीं. पहला यकीन खुद पर करो. अपने होने पर. अपने परिवेश पर. अपनी समझ पर. और इसको बयां करने वाली अपनी जबान पर तो सबसे ज्यादा. मैंने पहले भी कई बार दोहराया है. फिर से वही मंतर पढ़ रहा हूं. जब तुम दिल्ली आते हो, तो तुम्हारे साथ सिर्फ तुम नहीं, एक जमीन का टुकड़ा, एक मोहल्ला, एक कस्बा आता है. इसमें पप्पू गुड़िया वाले की गली आती है, जहां कंधे से कंधे टकराता है और चूड़ियों, झिलमिल झालर और बिंदी, पाउडर की खरीद चल रही है. कुछ गीला सा बजरिया आता है, कहीं बिरयानी, तो कहीं टेलर गली के साथ. घंटाघर आता है, शहर के तमाम छुटभैयों और पान की बड़ी दुकानों को समेटे. एक राजनैतिक और सामाजिक समझ आती है. एक जबान आती है. उसे वहीं प्लेटफॉर्म पर समोसे के दोने में छोड़ मत आना. साथ लाना और सहेजना. क्योंकि तुम जहां रहते हो, वही तो देस है. तुम्हारा देस. और ये सब पत्थरदिल दिल्ली में कवायदें चलती हैं न. ये बिल, वो बिल, फलाने राजनियक की यात्रा, ढिकाना घोटाला, रैली, स्कीम और ऐसा ही तमाम रायता. ये उसी देस के नाम पर बघराया जाता है.

तो जब तुम ढाई घंटे के दरमयान अपना तिलिस्म रचो, अपने जवाब गढ़ो, तो इस देस और उसके मुहावरों और उसकी चिंताओं को मत भूलना. जीआईसी के मैदान में किरकिट के दौरान हुई बहस, गुप्ता चाट भंडार में पानी के बताशे खाते वक्त हाथ लगे लिफाफे पर लिखी खबर और डिग्री कॉलेज के सामने टंगी अंगरेजी सिखाने और विदेश भेजने का गुलमोहरी ख्बाव दिखाने वाली होर्डिंग, ये सब एक चाभी ही तो हैं, तुम्हारे वक्त की महीन दुनिया वाली पेटी को खोलने के लिए.

यकीन रखो, अपनी जबान, समझ और भाषा पर और फिर उस पर मुलम्मा चढ़ाओ, उन तमाम रेडियो बुलेटिन, न्यूज चैनल की बहसों, पत्रिकाओं, अखबारों के कमोबेश आयातित से ख्यालों का, प्रतियोगियता दर्पण नुमा मैगजीनों का, जिनसे तुमने तथ्य और कुछ तर्क भी जुटाए हैं. तब जो जवाब तैयार होगा, वो अभिजन भी होगा और भीतर भदेसपन लिए भी.

मेरी चिंता ये नहीं है कि दाखिला होगा या नहीं. यहां नहीं होगा, तो कहीं और होगा, बशर्ते यकीन के बीज बचाकर रखे गए हों. चिंता उसके बाद की है. जब एक लाठी, एक पोटरी और एक पेप्सी के उखड़ चुके स्टिकर वाली बोतल, जिसमें पानी भरते ही रहना है, लिए तुम सफर पर निकलोगे.

मिट्टी कभी इतनी पथरीली होगी, कि लगेगा, कहां इतने घाम पर पैर जलाए फिर रहे हो. कभी इतनी पोली, कि लगेगा मेरे गुलाबी आभा वाले पैर के नाखूनों को ये कैसा नजर का टीका लग गया कीचड़ का, कभी इतनी सुंदर कि लगेगा, बस अब यहीं टिककर सुस्ता लिया जाए. मगर ये जंगल रुकने नहीं देता. रफ्तार जिंदगी को जिलाए रखेगी और रुके तो खरपतवार बन जाओगे हमेशा के लिए.

तो बड़ी तैयारी पत्रकारिता के इस अरण्य में घुसने से पहले जरूरी है. कई बार लगेगा कि गुम गए. अंधेरा अपने साथ आवाजें लेकर आएगा. हवा हिलेगी, तो लगेगा कि चौंपियारी बखरी वाला भूत आखिर सामने ही आ गया. खुद अपनी सांस पराई लगेगी. ऐसे में फिर यकीन का मंतर पढ़ना है.

ये जो देस है, इस जंगल के परे एक नए सिरे से तुम्हारे इंतजार में है. कि वो लाठी हवा में घुमाता, बेपरवाह सा दिखने वाला, मगर बेहद संजीदा आएगा और जब जंगल की कहानियां सुनाएगा, तो उसमें हम होंगे.

असल में सारी लड़ाई तो यहीं आकर ठहर सी जाती है न. हमें अब न फूला रानी चाहिए, न मयूरध्वज जैसे राजकुमार. हमें तो बूंचा कुत्ता, चंदनपुर गांव, रामदेई जिजी, सोबरन कक्का और उनके सामने बदलते खेतों की सीरत की कहानी चाहिए. हमें तो बजरिया, तालाब और स्टेशन रोड के तपते किस्से चाहिए. और इन किस्सों को तुम ही तो सुनाओगे, जो उन सड़कों पर जून की सख्त आवारा दोपहरों में भटके हो. तो मसला सारा ये है कि देस की बात करने के लिए तुम तमाम औजारौं की पहचान रखते हो या नहीं. पहचान क्योंकि ये हैं तुम्हारे पास. उस चमत्कारी शमशीर की तरह, जो खुद तुम्हें भी नहीं पता कि तुम्हारी पीठ पर खुंसी है और पीछे से कमीज के भीतर हाथ डालते ही, यकीन के साथ, बाहर निकल आएगी.

आओ कि इस जंगल में टंगे कुछ पिशाच, ब्रह्मराक्षस, भूखे जानवर, यूं ही फिरते बनरोज तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं. आओ कि कुछ तुम्हारे जैसे ही प्यास से ताकत पाते यात्री यहां भटक रहे हैं, पड़ाव कर रहे हैं. आओ कि जंगल के उस पार बैठे कुछ बूढ़े तुम्हें अपना झोला देकर मुक्त होने की कगार पर हैं. इनकी आंखों में देखना, तुम्हें वही बाप वाली आस दिखेगी.

...आओ क्योंकि नहीं आए, तो तमाम जिंदगी सालती रहेगी ये फांस, कि हम आवाज होते हुए भी फुसफुसाते ही रह गए...

तुम्हारी आवाज की शुरुआती तराश के लिए कुछ लोग अपने तानपुरे के तार कसते, लकड़ी के हथौड़ों की पॉलिश निहारते बैठे हैं. आओ और उनसे कहो, गुरू हम आ गए, अब शुरू हो जाएं...

3 comments:

Unknown said...

badiya likha

Unknown said...

Awesome ...dil khush ho gaya

कलम वीर said...

तीन बरस पहले पढ़े थे,साहस की पगड़ी हमरे सर पे बंध गई थी एकदम टाइट.... आज यादें तरोताज़ा हो गई....